गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी की रहस्यमयी अद्भुत यात्रा
प्रारंभिक जीवन:
प्रारंभिक जीवन: संघर्ष और आध्यात्मिक प्यास
गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी का जन्म एक अत्यंत साधारण परिवार में हुआ था। उनकी माता, श्री देवी, बीड़ियाँ बनाकर अपने बच्चों का पालन-पोषण करती थीं, जबकि पिता, मेहरबान सिंह, मिल में मजदूरी करते थे। चार भाइयों में सबसे छोटे नारायण का जीवन प्रारंभ से ही कठिनाइयों से भरा था। गरीबी, अभाव और समाज की उपेक्षा ने उनके जीवन को एक तपस्या बना दिया था।
बचपन से ही गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी की आत्मा आध्यात्मिक प्रकाश की खोज में भटकती रही। जब अन्य बच्चे खेल-कूद में व्यस्त रहते, गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी किसी संत के चरणों में बैठकर ज्ञान की बातें सुनते। उनकी यह प्रवृत्ति समाज के लिए एक पहेली बन गई थी। लोग उन्हें पागल समझते, ताने मारते, लेकिन गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी की आत्मा किसी अनजानी शक्ति की ओर खिंचती चली जा रही थी।
उज्जैन की ओर यात्रा: गुरु से साक्षात्कार
एक दिन, भाग्य ने गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी के कदम उज्जैन नगरी की ओर मोड़ दिए। यह नगरी अपने आध्यात्मिक महत्व और रहस्यमयी संतों के लिए प्रसिद्ध थी। यहाँ उनका साक्षात्कार पूज्य बापजी महाराज से हुआ, जो भगवान महाकाल और हनुमान जी के परम भक्त थे। बापजी महाराज की ख्याति चमत्कारी उपचारों और दुखियों के उद्धार के लिए दूर-दूर तक फैली थी।



गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी ने देखा कि कैसे गुरुजी, भगवान महाकाल और हनुमान जी की भक्ति में डूबे, अपने आश्रम में गूढ़ तांत्रिक क्रियाएँ करते थे। निर्धनों के कष्ट हरते थे, अतृप्त आत्माओं को शांति देते थे। यह दृश्य देख गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी का मन श्रद्धा से भर उठा।
सेवा और समर्पण: गुरु के चरणों में
गुरुजी की निस्वार्थ सेवा से प्रभावित होकर, गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी नियमित रूप से उनके लिए दूध, छाछ, फल-फूल लेकर जाने लगे। धीरे-धीरे वह तन, मन, धन और आत्मा से उनकी भक्ति में लीन हो गए। घरवाले और मित्र उनका मज़ाक उड़ाते रहे, पर उन्होंने उनकी परवाह छोड़ दी। उनका जीवन अब गुरुजी के चरणों में समर्पित था।
वर्षों बीत गए।शनिभारती जी की सेवा और समर्पण ने उन्हें एक साधक से सिद्ध की ओर अग्रसर कर दिया। उनकी साधना ने उन्हें एक दिव्य शक्ति का संवाहक बना दिया था।
जिज्ञासा और गुरु का उत्तर:
एक दिन, जिज्ञासा से भरे मन से गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी ने गुरुजी से पूछा, गुरुजी, आप प्रेतों की पूजा क्यों करते हैं? श्मशान में बलि और तांत्रिक विधियाँ करना क्या उचित है? आप केवल भगवान महाकाल की साधना क्यों नहीं करते?
गुरुजी ने करुणा भरी मुस्कान बिखेरी और बोले,
“बेटा, यह सब मैं महाकाल के दिव्य संकेतों पर करता हूँ। पीड़ित मानवों के साथ-साथ अतृप्त आत्माओं को भी मोक्ष का मार्ग दिखाता हूँ। इन आत्माओं से सेवा लेकर, मैं असहाय लोगों के दुखों को हरता हूँ और उन्हें प्रेत योनि से मुक्ति दिलवाता हूँ। इसमें शिव के गण, रुद्र अवतार और प्रभु राम के परम भक्त हनुमान जी की विशेष कृपा शामिल है। मैं किसी से धन नहीं माँगता। जो भी दान मिलता है, उसे गरीबों और इन आत्माओं के कष्ट निवारण में लगा देता हूँ।”
गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी चुपचाप सुनते रहे। गुरुजी के शब्द उनके मन में गहरे उतर गए। वह समझ गए कि सच्ची साधना केवल स्वयं के लिए नहीं, दूसरों की मुक्ति के लिए भी होती है।
अर्धांगिनी का परामर्श: सात पीढ़ियों का आशीर्वाद
गुरुजी की सेवा में वर्षों बीत गए थे। समय एक अनंत प्रवाह-सा बहता रहा। एक दिन, गुरुजी ने गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी से पूछा, “बेटा, तेरे मन में क्या इच्छा है? तू क्या चाहता है?”
नारायण ने विनम्रता से कहा, “गुरुजी, एक दिन का समय दीजिए… मैं अर्धांगिनी से परामर्श करना चाहता हूँ।”
पत्नी ने वर्षों तक पति को तपस्या करते देखा था—ना कोई धन जोड़ा, ना कोई सांसारिक सुख माँगा। अर्धांगिनी बोली—”हमें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए … पर हमारी बेटी है। उसका भविष्य उज्ज्वल हो, और हमारे बाद भी तुम्हारी साधना का पुण्य उसके साथ हो। गुरुजी से माँगो—ऐसा कुछ करो कि तुम्हारी सात पीढ़ियाँ को आध्यात्मिक सुख प्राप्त हो, और संसार आपको याद रखे। यह शब्द गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी के भीतर गूंज उठे।


गुरु का आशीर्वाद: शनिदेव शक्ति का प्रतीक
अगले दिन गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी गुरुजी के चरणों में नतमस्तक हुए और बोले— “गुरुदेव, आप कृपा करें ऐसा वर दें कि मैं कोई ऐसा कार्य कर सकूँ जो अब तक किसी ने न किया हो—जिसका लाभ मेरी सात पीढ़ियों को हो , और मेरी आत्मा को स्थायी सेवा का अवसर। गुरुजी मौन हुए, फिर मुस्कराए।
उन्होंने एक काली मटकी उठाई। उसमें हाथ डाला और तेल से सना हुआ एक भयावह पुतला बाहर निकाला—काला, चमकता हुआ, जैसे किसी रहस्य की छाया। गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी के हाथ काँप उठे। चेहरा पीला पड़ गया।
गुरुजी… यह क्या?”
गुरुजी बोले—
“यह कोई साधारण वस्तु नहीं। यह शनिदेव की मूर्त शक्ति है। इसे सम्भालना सबके बस की बात नहीं। यह तुझे मैं इसलिए दे रहा हूँ क्योंकि तू केवल साधक नहीं, पात्र है। तुझमें वह श्रद्धा है, जो किसी भी शक्ति को साध सकती है।”
फिर गुरुजी ने रावण और शनिदेव की कथा सुनाई। बताया कैसे शनिदेव की दृष्टि से स्वयं रावण का अंत हुआ था। यह पुतला उस दृष्टि की प्रतीक शक्ति है—जो किसी भी अनिष्ट को परास्त कर सकती है।
“पर ध्यान रहे,” गुरुजी बोले—
“यह शक्ति केवल उसी के हाथ में फलित होती है जो निस्वार्थ हो, जिसका मन स्वच्छ हो, और जिसकी सेवा निष्काम हो।” गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी ने उसे सिर से लगाया और प्रण किया कि जीवन भर वह इसे सेवा, तप और त्याग से संरक्षित करेंगे।
शनिदेव की परीक्षा:
साधक से सिद्ध की यात्रा उस दिन से नारायण की यात्रा बदल गई। अब वह केवल सेवा नहीं करते थे, वह दिव्य शक्ति के संवाहक बन गए थे। शनिदेव उनकी परीक्षा पर परीक्षा लेते रहे—बीमारियाँ, दुःख, तांत्रिक प्रहार, आत्मिक झटके—पर वह अडिग रहे।
उनकी साधना ने उन्हें एक दिव्य शक्ति का संवाहक बना दिया था। शनिदेव की कृपा से उन्होंने अनेक लोगों के कष्ट दूर किए, भटकती आत्माओं को मोक्ष दिलाया और समाज में एक नई चेतना का संचार किया।
तीस वर्षों की तपस्या और एक संकेत
गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी वह पुतला लेकर घर लौटे। उनकी पत्नी ने जब उस पुतले को देखा तो उन्होंने भी गहराई से महसूस किया कि यह कोई साधारण वस्तु नहीं है — यह स्वयं शनि देव का संकेत है।
संकल्प: हाथी पर विराजमान शनिदेव की दिव्य मूर्ति स्थापना
नारायण स्वामी और उनकी धर्मपत्नी ने एक महान और असंभव-से दिखने वाले संकल्प की घोषणा की — “हम हाथी पर विराजमान शनिदेव की विश्वस्तरीय मूर्ति की स्थापना उज्जैन में करेंगे।”
लेकिन उनके पास न धन था, न संसाधन, न कोई राजनीतिक या सामाजिक पहुंच। परंतु पत्नी ने अपने सारे गहने बिना किसी संकोच के समर्पित कर दिए। इधर-उधर से थोड़ी मदद जुटाकर वे अहमदाबाद पहुँचे, जहाँ प्रसिद्ध अष्टधातु मूर्तिकार श्री अशोक मेहता से मिले।
मूर्ति का आकार और चमत्कार का आरंभ
शुरुआत में मूर्ति का वजन दो कुंतल सोचा गया था, पर जैसे ही मूर्तिकार ने कार्य शुरू किया, मूर्ति स्वतः ही बढ़ती गई — और अंत में वह एक 11 टन की भव्य और दिव्य मूर्ति बन गई। यह एक सामान्य घटना नहीं थी, बल्कि शनिदेव की उपस्थिति का स्पष्ट प्रमाण थी।
उधर, अशोक मेहता के घर में वर्षों से संतान नहीं थी। यह उनके परिवार की कई पीढ़ियों से चली आ रही पीड़ा थी। अशोक मेहता स्वयं भी गोद लिए हुए थे। पर जब शनिदेव की मूर्ति उनके घर बनी, तभी उनके गुरु आए और बोले:
“आज तेरे घर न्याय के देवता स्वयं पधारे हैं। तू न्याय कर, न्याय तुझे भी मिलेगा।”
कुछ ही समय बाद, अशोक मेहता के घर जुड़वा संतान का जन्म हुआ। मोहल्ले भर में यह चर्चा का विषय बन गया — यह चमत्कार नहीं तो और क्या था?
चिंता, श्रद्धा और चमत्कार की परीक्षा
उधर गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी के मन में चिंता थी — अब यह 11 टन की मूर्ति उज्जैन कैसे पहुंचेगी? पैसे भी खत्म हो गए थे। फिर भी वे साहस जुटाकर एक चेक लेकर अहमदाबाद लौटे।
उस दिन मूर्ति को देखने सैकड़ों लोग जमा थे। मंच पर मूर्ति की दिव्यता देखकर सभी नतमस्तक हो गए। गुरुदेव महंत श्री शनिभारती जी ने अशोक मेहता से धीरे से कहा:
“हमारे पास अभी पैसे नहीं हैं। चेक लेकर आए हैं। यदि आप चाहें तो मूर्ति हमें दे दें, नहीं तो हम लौट जाते हैं, जब व्यवस्था होगी तब मूर्ति लेंगे।”
अशोक मेहता मुस्कराए। उन्होंने मंच से घोषणा की:
“गुरुजी, आपसे कौन पैसा मांग रहा है? यह मूर्ति आपकी है। उल्टे आप मुझसे ₹1,00,000 लेकर जाइए। क्योंकि इस मूर्ति ने मेरे घर को संतान का सुख दिया है, यह आपका अधिकार है।”
दिव्य यात्रा और स्थापना का चमत्कार
मूर्ति को भव्य रथ में सजाया गया। यात्रा शुरू हुई। हजारों लोगों ने दर्शन किए। जैसे-जैसे मूर्ति उज्जैन की ओर बढ़ी, मार्ग में जगह-जगह श्रद्धालुओं ने फूलों से स्वागत किया। जब मूर्ति शनि शक्तिपीठ स्थान पर पहुंची, तो वह स्थान तप, विश्वास और कृपा का साक्षात केंद्र बन गया।
“आज भी उज्जैन में हाथी पर विराजमान शनिदेव की वही दिव्य मूर्ति श्रद्धालुओं को दर्शन देती है। उनकी आँखों में करुणा है, हाथों में न्याय का प्रतीक, और उपस्थिति मात्र से भक्तों के जीवन से संकट दूर होते हैं। यदि आप उस आश्रम जाएँ, तो वहाँ की हवाओं में आज भी शनि देव की दृष्टि की रहस्यमयी शक्ति, गुरु की कृपा, और अर्धांगिनी के निस्वार्थ प्रेम की कंपन को महसूस कर सकते हैं। वह स्थान आज भी आस्था, तप और चमत्कार का सजीव प्रतीक है।”